बच्चों में ऑटिज़्म: कारण, लक्षण और बाल पुनर्वास की भूमिका

बच्चों में ऑटिज़्म: कारण, लक्षण और बाल पुनर्वास की भूमिका

विषय सूची

1. ऑटिज़्म क्या है? – एक संक्षिप्त परिचय

ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) एक न्यूरो-विकास संबंधी स्थिति है, जो बच्चों के सामाजिक, संचार और व्यवहारिक कौशल को प्रभावित करती है। भारत में ऑटिज़्म के प्रति जागरूकता पिछले कुछ वर्षों में बढ़ी है, लेकिन अभी भी बहुत से लोग इसके बारे में पूरी जानकारी नहीं रखते हैं। यह विकार हर बच्चे में अलग-अलग तरह से प्रकट हो सकता है; किसी में हल्के लक्षण होते हैं तो किसी में अधिक गंभीर।

भारतीय परिप्रेक्ष्य से ऑटिज़्म

भारत में पारिवारिक और सामाजिक ढाँचा मजबूत होने के बावजूद, ऑटिज़्म को लेकर कई भ्रांतियाँ और मिथक प्रचलित हैं। अक्सर माता-पिता बच्चों के अलग व्यवहार को शरारत या शर्मीलेपन से जोड़ लेते हैं। इससे समय पर निदान और उपचार में देरी हो सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो जानकारी का अभाव और भी अधिक देखने को मिलता है।

भारत में ऑटिज़्म के हालिया आँकड़े

वर्ष भारत में ASD के अनुमानित मामले स्रोत
2018 15 लाख+ ICMR रिपोर्ट
2021 18-20 लाख+ राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण

इन आँकड़ों से पता चलता है कि भारत में ऑटिज़्म के मामलों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, जिसका कारण जागरूकता, बेहतर निदान एवं रिपोर्टिंग भी हो सकता है। अब शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ ग्रामीण इलाकों में भी इसे समझने और स्वीकार करने की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं।

सामाजिक दृष्टिकोण

भारतीय समाज में बच्चों के विकास को लेकर कई अपेक्षाएँ होती हैं। यदि बच्चा बोलने या दूसरों से मिलने-जुलने में कठिनाई महसूस करता है, तो परिवार व पड़ोसी तरह-तरह की सलाह देते हैं। ऐसे माहौल में सही जानकारी और मार्गदर्शन मिलना आवश्यक है ताकि बच्चे की मदद समय रहते की जा सके। बाल पुनर्वास सेवाओं की भूमिका यहाँ महत्वपूर्ण बन जाती है, जो ऑटिज़्म पीड़ित बच्चों को मुख्यधारा में लाने का कार्य करती हैं।

2. ऑटिज़्म के कारण – भारतीय संदर्भ

ऑटिज़्म के संभावित कारण

ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) बच्चों में विकास से जुड़ी एक स्थिति है, जिसका कोई एक निश्चित कारण नहीं है। हालांकि, कई शोधों के अनुसार, इसके पीछे आनुवांशिकी, पर्यावरणीय कारक और अन्य कई कारण हो सकते हैं। भारत जैसे विविध संस्कृति और सामाजिक धारणाओं वाले देश में ऑटिज़्म के कारणों को समझना जरूरी है ताकि सही समय पर पहचान और हस्तक्षेप किया जा सके।

आनुवांशिक कारक (Genetic Factors)

अनुसंधानों से पता चला है कि यदि परिवार में पहले किसी सदस्य को ऑटिज़्म रहा है, तो बच्चे में भी इसकी संभावना बढ़ जाती है। आनुवांशिक बदलाव या म्यूटेशन भी इस स्थिति का कारण बन सकते हैं।

पर्यावरणीय कारक (Environmental Factors)

कुछ पर्यावरणीय कारक जैसे गर्भावस्था के दौरान संक्रमण, माता-पिता की उम्र, प्रेग्नेंसी के दौरान दवाइयों का सेवन आदि भी ऑटिज़्म के जोखिम को बढ़ा सकते हैं। भारत में प्रदूषण, कुपोषण और हेल्थकेयर की सीमित पहुंच जैसे फैक्टर भी संभावित रूप से जुड़े हो सकते हैं।

भारत में आम मिथक और भ्रांतियाँ

भारतीय समाज में ऑटिज़्म को लेकर कुछ आम भ्रांतियाँ प्रचलित हैं, जिनका सच जानना बहुत जरूरी है:

मिथक / भ्रांति सच्चाई
ऑटिज़्म माता-पिता की गलती है यह पूरी तरह गलत है; ऑटिज़्म बायोलॉजिकल व जेनेटिक कारणों से होता है
ऑटिज़्म संक्रामक है ऑटिज़्म किसी भी तरह से छूने या संपर्क से नहीं फैलता
देर से बोलना ऑटिज़्म का मुख्य लक्षण है देर से बोलना केवल एक संकेत हो सकता है, लेकिन हर देर से बोलने वाला बच्चा ऑटिस्टिक नहीं होता
ऑटिस्टिक बच्चे कभी सामान्य जीवन नहीं जी सकते समुचित पुनर्वास व समर्थन से वे अच्छी प्रगति कर सकते हैं
समाज की भूमिका

भारत में जागरूकता की कमी और सामाजिक दबाव के कारण अक्सर माता-पिता बच्चों की कठिनाइयों को नजरअंदाज कर देते हैं या शर्म महसूस करते हैं। सही जानकारी और समय पर चिकित्सा सहायता मिलने से बच्चों को बेहतर भविष्य मिल सकता है। इसलिए समाज का सहयोग और सही जानकारी बेहद जरूरी है।

लक्षण और प्रारंभिक पहचान

3. लक्षण और प्रारंभिक पहचान

ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) के लक्षण छोटे बच्चों में बहुत अलग-अलग रूपों में दिखाई दे सकते हैं। हर बच्चा अलग होता है, लेकिन कुछ सामान्य संकेत होते हैं जिन पर माता-पिता, आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं को ध्यान देना चाहिए।

व्यवहार संबंधी लक्षण

लक्षण कैसे दिख सकता है?
हरकतों की दोहराव (Repetitive Behaviors) एक ही चीज़ को बार-बार करना, जैसे हाथ हिलाना, घूमना या किसी चीज़ को घुमाना
खिलौनों के साथ अनोखा खेल खिलौनों को लाइन में लगाना, बजाय सामान्य तरीके से खेलने के
रूटीन बदलने पर परेशानी रोज़मर्रा की आदतें बदलने पर गुस्सा या बेचैनी दिखाना

सामाजिक कठिनाइयाँ

  • आँखों से संपर्क नहीं करना या कम करना
  • दूसरों के साथ खेलना या बातचीत करने में रुचि न लेना
  • चेहरे पर भाव कम आना या मुस्कान कम दिखाना
  • नाम पुकारने पर प्रतिक्रिया न देना

संचार संबंधी कठिनाइयाँ

  • देर से बोलना शुरू करना या बोलना न आना
  • शब्दों का दोहराव (Echolalia), यानी सुनी हुई बात को बार-बार दोहराना
  • अपनी ज़रूरतें इशारों से जताना, बोलकर नहीं बताना
  • सवाल पूछने या जवाब देने में दिक्कत होना

प्रारंभिक पहचान में माता-पिता और कार्यकर्ताओं की भूमिका

माता-पिता और स्थानीय स्वास्थ्य कार्यकर्ता (जैसे आशा या आंगनवाड़ी दीदी) बच्चों में इन संकेतों को देखकर जल्दी पहचान सकते हैं। अगर बच्चा 2 साल की उम्र तक भी बोलना नहीं सीखता, आँख से संपर्क नहीं करता, या दूसरों के साथ घुलता-मिलता नहीं है, तो यह ऑटिज़्म का संकेत हो सकता है। ऐसे मामलों में विशेषज्ञ डॉक्टर या पुनर्वास केंद्र से सलाह लेना चाहिए। समय रहते पहचान होने पर बच्चे की मदद जल्दी शुरू हो सकती है, जिससे भविष्य में बेहतर विकास संभव होता है।

4. बाल पुनर्वास में परिवार और समुदाय की भूमिका

परिवार की भागीदारी

ऑटिज़्म से प्रभावित बच्चों के लिए परिवार सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण सहायता प्रणाली है। माता-पिता, भाई-बहन और अन्य परिवारजन बच्चे को रोज़मर्रा की गतिविधियों में शामिल करने, संवाद बढ़ाने और आत्मनिर्भर बनाने में मदद करते हैं। रोज़मर्रा के छोटे-छोटे कार्यों, जैसे कि बोलना, खेलना या खुद खाना सीखना, इन सबमें परिवार का सहयोग जरूरी होता है।

शिक्षकों और स्कूल की भूमिका

स्कूल और शिक्षक बच्चों के सामाजिक और शैक्षिक विकास में बड़ी भूमिका निभाते हैं। ऑटिज़्म से ग्रसित बच्चों के लिए विशेष शिक्षा योजनाएँ बनाई जाती हैं। शिक्षकों को बच्चों के व्यवहार को समझकर उनके अनुसार पढ़ाना चाहिए। यह भी ज़रूरी है कि कक्षा के अन्य बच्चों को भी जागरूक किया जाए ताकि वे सहयोगी बनें।

स्थानीय पंचायत, आंगनवाड़ी एवं सामाजिक संस्थाएँ

गाँव या शहर की पंचायतें, आंगनवाड़ी केंद्र और सामाजिक संगठन समुदाय स्तर पर जागरूकता फैलाने और संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने में मदद करते हैं। आंगनवाड़ी वर्कर और आशा बहुएँ घर-घर जाकर ऑटिज़्म के लक्षण पहचानने, माता-पिता को मार्गदर्शन देने और सरकारी योजनाओं की जानकारी देने का काम कर सकती हैं।

भागीदारी बढ़ाने के तरीके

समूह सहयोग के तरीके
परिवार प्रोत्साहन देना, धैर्य रखना, घरेलू गतिविधियों में शामिल करना
शिक्षक/स्कूल विशेष शिक्षा देना, बच्चों को सहयोगी बनाना, अभिभावकों से संवाद करना
पंचायत/आंगनवाड़ी जागरूकता शिविर लगाना, सरकारी योजनाओं की जानकारी देना, विशेषज्ञों से संपर्क करवाना
जागरूकता बढ़ाने के उपाय
  • गाँव या मोहल्ले में नियमित रूप से ऑटिज़्म पर चर्चा एवं वर्कशॉप आयोजित करें।
  • स्थानीय भाषा में पोस्टर और ब्रोशर वितरित करें।
  • स्वयंसेवी संस्थाओं के सहयोग से माता-पिता और शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाएँ।

इस प्रकार परिवार, शिक्षक, पंचायत तथा सामाजिक संस्थाएँ मिलकर बच्चों के पुनर्वास में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। जागरूकता और सामूहिक सहयोग से ही ऑटिज़्म से प्रभावित बच्चों का जीवन बेहतर बनाया जा सकता है।

5. भारत में बाल पुनर्वास: उपलब्ध सेवाएँ और संसाधन

भारत में ऑटिज़्म से प्रभावित बच्चों के लिए कई पुनर्वास सेवाएँ और संसाधन उपलब्ध हैं। यह सेवाएँ सरकारी योजनाओं, गैर-सरकारी संगठनों (NGOs), विशेष स्कूलों एवं चिकित्सीय केंद्रों के माध्यम से प्रदान की जाती हैं। इस अनुभाग में हम भारत सरकार व गैर-सरकारी संगठनों द्वारा बच्चों के लिए उपलब्ध प्रमुख पुनर्वास सेवाओं पर प्रकाश डालेंगे।

मुख्य पुनर्वास सेवाएँ

सेवा का नाम विवरण
विशेष शिक्षा (Special Education) विशेष विद्यालयों में अनुभवी शिक्षकों द्वारा बच्चों की सीखने की क्षमता के अनुसार शिक्षा दी जाती है। इसमें व्यक्तिगत शैक्षिक योजना (IEP) बनाई जाती है।
स्पीच थेरेपी (Speech Therapy) बोलने, समझने तथा संवाद कौशल में सुधार के लिए स्पीच थेरेपिस्ट की मदद ली जाती है। यह सेवा सरकारी अस्पतालों व निजी क्लीनिकों दोनों जगह उपलब्ध है।
व्यवहार चिकित्सा (Behaviour Therapy) बच्चों के व्यवहार को सकारात्मक रूप से बदलने हेतु ABA थैरेपी व अन्य तकनीकों का उपयोग किया जाता है।
फिजियोथेरेपी एवं ऑक्यूपेशनल थेरेपी मोटर स्किल्स, संतुलन एवं दैनिक जीवन की गतिविधियों में सुधार हेतु विशेषज्ञ मदद करते हैं।

सरकारी योजनाएँ और सहायता

योजना/संसाधन क्या मिलता है?
समग्र शिक्षा अभियान विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को समावेशी शिक्षा एवं सहायता उपकरण प्रदान करता है।
राष्ट्रीय ट्रस्ट (The National Trust Act, 1999) ऑटिज़्म सहित चार प्रकार की दिव्यांगता के लिए पेरेंट्स ट्रेनिंग, देखभाल योजना, बीमा आदि सुविधाएँ देता है।
स्वयं सहायता समूह (Self Help Groups) अभिभावकों को आपस में जोड़कर अनुभव साझा करने एवं मानसिक सहयोग प्राप्त करने का अवसर मिलता है।

गैर-सरकारी संगठन (NGOs) द्वारा योगदान

भारत में कई प्रतिष्ठित NGO जैसे Action For Autism, Autism Society of India, Tamana आदि विशेष स्कूल, काउंसलिंग, थेरेपी एवं जागरूकता कार्यक्रम चलाते हैं। ये संगठन बच्चों के साथ-साथ उनके परिवारों के लिए भी मार्गदर्शन व प्रशिक्षण देते हैं।

सेवा प्राप्त करने का तरीका

अभिभावक अपने नजदीकी जिला अस्पताल, स्वास्थ्य केंद्र या NGO से संपर्क कर सकते हैं। इसके अलावा राज्य सरकार की वेबसाइट्स व हेल्पलाइन नंबर पर जानकारी उपलब्ध रहती है। हर बच्चे की ज़रूरत अलग होती है, इसलिए विशेषज्ञ सलाह लेना जरूरी है।